31 दिसंबर 2008

नव बर्ष की शुभकामनायें


कुछ आंसू की बूंदें
कुछ खुशी की लहर
आंसू मे भी वोही चमक
जो छिपी खुशी मे हमारे
फिर कांहें चिंता दुःख की
क्यों व्यथा से घबराएं
फिर कांहें स्वार्थ सताए
क्यों सब बटोरने की सोचे
कर कुछ भला बन्दे
दे दुनिया को कुछ तोहफे
याद करे दुनिया तुझे
जब भी नाम तेरा आए
दाता को है सब की ख़बर
दाता को है सबकी फिकर
इतना ही कहे हम
जोड़ कर दोनों हाथ
....हम चले नेक रस्ते पर
हम से भूल कर भी कोई भूल हो ना......

19 दिसंबर 2008

वो बच्चे


खेतों खलिहानों मे दौड़ते वो बच्चे
मिट्टी से सने पानी मे खेलते वो बच्चे
पसीने से तर है उनके बदन
बिन कपडों के नंगे है उनके बदन
भूख से बिलबिलाते वो बच्चे
धुप मे काले हो गए उनके चेहरे
भूख से कभी पीले पड़ गए वो चेहरे
माता पिता को कड़ी मेहनत करते देख रहे वो बच्चे
फिर कैसे उनसे रोटी मांगे वो बच्चे
खेल मे तल्लीन रहने का करते है बहाना
भगवान् से बस प्रार्थना करते है वो बच्चे
कब अच्छे दिन आयेंगे? जब पेट भर वो भी खा पायेंगे
किसान जो लाखों का पेट भरता है
जो हमें सक्षम सबल बनता है
कितनी विडम्बना है उसकी
भूख से बिलबिला रहे है उसीके बच्चे
दो जून की रोटी के लिए रो रहे है
उसे फटे चिथडों को पहनाना पड़ता है
पाठशाला का कभी मुंह नही देखे, वो बच्चे
हाय रे ! और उन्हें ही देश का भविष्य बनाना है
कैसे भविष्य बनायेंगे वो बच्चे ?
जो ख़ुद इतनी जर्जर अवस्था मे है वो बच्चे

17 दिसंबर 2008


एक छन आशा
एक छन निराशा
एक मन उगे
एक मन डूबे
आशा ...निराशा एक आये एक जाये

आशा ...निराशा
साथ जैसे शरीर और आत्मा
जैसे दिया बाती
या कोई प्यारी सहेली

मचाये हलचल
करे मन को व्याकुल
पल पल, हरपल

एक खुशी की लहर
एक दुःख की बदली
एक तड़प जगाये
एक जीवन जोत जलाए
आशा...निराशा एक आये एक जाये

आशा....निराशा
साथ जैसे नदी और धारा
जैसे धुप और छाँव
या किसी कड़वाहट मे छुपी मिठास

नैन भिगोये कभी
कभी राह सुझाए नयी
भूले भटके राही को
यही आशा..निराशा|
आशा...निराशा एक आये एक जाये|

29 अक्टूबर 2008

कलम






कलम लिखती है कभी कागज़ पर.... कभी दिल पर......

जब लिख ना पाये अपनी अक्षर तब बोलती है कभी जुबान से.... कभी निगाह से.....

कलम चलती है कभी सोच थम जाती है कभी शब्द अटक जाते है

विचारों का मंथन होता है कभी दिमाग में.... कभी मन में ....

हाथ बार-बार कलम के साथ बढ़ते है, कोरे कागज़ की ओर चलते है, रुक जाते है

चुनकर एक शब्द, फिर चल पड़ते है कलम दौड़ती है कागज़ पर.....

खाली पन्नों को आकार देती है अपनी सोच की छवि का

सजाती है, सवारती है स्याह रंगों से, श्यामल रूप

कलम बोलती है कागज़ पर...

जहाँ गुम हुए कुछ शब्द रगड़ती जाती है, एक ही लकीर को

कभी छेद हुए जो पन्नो पर कुछ सपने वहाँ से बह जाते है...

लेकिन कागज़ के टुकडों पर कलम शब्द जोड़ती है

शसक्त करती अपनी आवाज बोलती अपनी बोली

कलम लिखती है कागज़ पर...दिल पर.....

कभी कुछ अनसुलझे पहलू पर जब कलम सोचती जाती है

फेकतें है, फाड़ कर उन पन्नों को

मुडे-मुडे से, कुचटे हुए से सभी शब्द पन्नों से झांकते है

बड़ी बेबस सी तब कलम नजर आती है

कभी किसी बेबसी की कहानी

कभी किसी दिल की जुबानी लिखने, फिर से चल पड़ती है

कलम...चलती है लिखती है कागज़ पर...दिल पर

06 अक्टूबर 2008

मकान


वो एक मकान ही तो था
कुछ ईंट, पत्थर
और रेंत का ढेर
उसके साथ जीते- जीते
अच्छी लगने लगी,उसकी दीवारें
उसका रंग-रूप
जचने लगे छोटे-छोटे झरोखे
उस पर लगे, वो फूलों वाले पर्दें
आस-पास उसके कुछ भी नही था
बस थे तो उसके ही जैसे
कुछ चंद मकान पत्थरों के
एक ही रूप रंग, कद काठी
फिर भी इस मकान की
अलग ही पहचान थी
सबसे हटके मेरा 'घर' था
जिसके छोटे-छोटे कमरों मे
मेरा दिल धड़कता था
उसमे रहते रहते
उसकी आदत सी पड़ गई थी
दो छोटे कमरें, एक रसोई
दो-चार, काठ के कुर्सी-टेबल
सारे के सारे मेरे धन
आँगन मे दो-चार फूलों की क्यारी
और एक-एक आम, अमरुद, कटहल के पेड़
बहुत प्यार से पालता था वह मुझे
छत उसका ना जाने कितने
आंधी, पानी को झेल गया
याद मे कितनी यादें हैं
घर से जुड़ी कितनी बातें हैं
उसके रौशनदान मे
चिडियों का घरौंदा
कुछ भी तो नही भूले
आज भी वो रास्ते वो गलियाँ
सब तो वही है
गुजरना जब भी हुआ उस राह से
एक नजर उस मकान को देखते हैं
उसकी दीवारें अब भी पहचानती है मुझे
बुलाती है हाथों को फैलाए
उस पर पड़ी दरारें
बूढी हो गई है उसकी नजर
और अब वो आम, अमरुद, कटहल
के पेड़ भी तो नही रहे
उस मकान मे अब अनजाने लोग रहते है
गूंजती है पिछली सारी बातें
आंखों मे तैर जाती है
खेल सारे ....पडाव सारें
कौन सा लगाव है, क्या जाने
कभी-कभी सपनों मे भी वह मकान आता है
क्या ईट पत्थरों के भी दिल होते हैं?
लेकिन कुछ तो है जो महसूस होता है
आह......
एक गहरी साँस मे यादों को बिसार दे
नही तो इस सिने मे बड़ा दर्द होता है|

छः ऋतू



कुछ रंगों के लिए मन तरस रहा है
किसी छन की याद मे मन भींग रहा है
जब मौसम करवट बदलता है
प्रकृति अपनी सुदरता की छटा बिखेरती है
जब बादल छाते है आसमान पर
हल्का सा अँधेरा होता है हर तरफ़
मिटटी की सोंधी खुशबू आती है
भीतर तक बस यही महक होती है
जब ठण्ड की कम्बल ओढे
गुलाबी शीत ऋतू आ जाती है
थोडी-थोडी धुंध मे, घास की तह पर
ओस की नन्ही बूंदें कापती है
जब कड़कती ठण्ड को हटा कर
फागुन की मस्त बहार आ जाती है
गिरते पत्तों के संग, सुखी शाखाओं पर
धीरे-धीरे बसंत की छटा छा जाती है
जब छम से कब, पता ना चले जैसे
जेठ की दोपहरी मे, गर्मी डराती है
लू की थपेडों मे, जिंदगी झुलस जाती है
पसीने की बूंद, हर पल अमृत धारा को तरसती है
और फिर वो रंग वापस आता है
जब कोयल गाती है, मोर नाचता है
धरती पर पड़ी प्यासी दरारों को
बरखा की धारा भर देती है
सब रंग कितना सुंदर
सबकी याद कितनी पावन
छः ऋतुओं वाला मेरा देश
पावन, पवित्र मेरा देश

दावत---वाह कंहूँ या हाय कहूँ


दावतों के नाम सुने थे
पकवानों के खूब हुए थे चर्चे
मुँह मे हमारे पानी भर आया
जलेबी, हलवा नाचे आंखों के आगे
उस दिन भी मन खूब तरसा
जिस दिन हुए दावत के दर्शन
हम भी शामिल हुए महफ़िल मे
सज-धज कर, लिए हाथों मे तोहफे
दुल्हन देखि, देखी दावत की तैयारी
चले खूब पटाखे, नाचते-झूमते बाराती आए
धूम-धडाका, बच्चों का शोर
आँख खिचती जाए पकवानों की ओर
नजरों को बांधा, दिल को समझाया
कहा "अपनी बारी का इंतजार तो कर"
सब अपनी हांथों मे प्लेट भर-भर जाए
हम भी मन मसोस कर सोचे
मेजबानों से कोई आकर हमें भी कहे
अरे हुजुर! "आप भी शौक फरमाए"
ग्रह-नछत्र ख़राब थे हमारे
लजीज खाने की खुशबु मन को खिचे
आते-जाते प्लेटों को देख कर
दिल को अपने ठंडा करते
आख़िर वो शुभ मुहूर्त आ ही गया
जब हमारा भी नंबर लग ही गया
हाँथ मे खाली प्लेट लेकर दौड़ पड़े
वेज खाने की पंक्ति मे जा खड़े हुए
तभी कोई हमारे आगे आ उछला
किसी का जोरदार पैर, हमारे नाजुक कदमों पर आया
एक जोर की चींख निकली हमारी
और, हांथों से प्लेट नीचे जा गिरी
अब कुछ और ही नजारा था
पहले नंबर से हम आखरी पर जा पहुचे
अब दिल बहुत तिलमिलाया
हाँथ मल कर हमने सोचा
"चलो धीरे से खिसक जाए
घर जाकर दाल-रोटी खाए"
लेकिन तब भी किस्मत ने ना साथ दिया
निकलते हुए भी हम पकडे गए
मेजबान की नजरों मे जकडे गए
कहा मेजबान ने "कहाँ चलते बने?
अभी तो दावत शुरू हुयी है---
आप भी कुछ चखिए, कुछ मजा लीजिये"
अपने क्रोध को संभालते हुए, हमने
हँसता हुआ चेहरा दिखाया और कहा
"चलिए चलिए---आप तकलीफ ना उठाये,
हम महफ़िल मे अभी शामिल होते है"
बेमन से हमने अपना नंबर फिर लगाया
खाली प्लेट के संग, किस्मत फिर आजमाया
मन मे रहे यही सोचा
वाह वाह रे दावत
तू भी खूब रही
क्या-क्या सपने हमने सजाये
तू ने भी हमें खूब लुभाया
यँहा आकर जब हुए तेरे दर्शन
तब हमने ख़ुद को, "रणभूमि" पर पाया
समझ मे हमें अब तक ना आया
तुझे क्या कह कर पुकारूं
दावत ---तुझे, वाह कहूँ या हाय कहूँ?

24 सितंबर 2008

नदियाँ-नईया


हिलोरें मारे जब नदियाँ
लहराए हवा चंचल
डगमग-डगमग डोले नईया

डराए उसे सताए उसे
करे शरारत
धीमी करे उसकी रफ़्तार

बिजली सी हँसती, लहरें
छू कर जाए बार-बार
करे उस पर वार

उफान सी लिए ख़ुद मे
उठती है मस्तानी लहरें
तूफ़ान कोई उठता हो जैसे

हिला कर नईया को
झकझोरे हवा उसे
करे, बस अपनी मनमानी

मिलती है राहों मे
कई मुश्किलें पथ रोके
नईया की प्राण अटके

पतवार तोडे, पत्थरीली राहें
जंगली हिरणी सी धारें
नईया की दिशा भुलायें

चलती जाए, बढती जाए
संग-संग नईया नदियाँ के
किनारों को ख़ुद मे घुलाते-मिलाते

माने नही कोई अपनी हार
एक नईया दूजी नदियाँ
एक ने अपनी ठानी, एक तूफानी

नदियाँ के संग हवा और लहरें
नईया की बस एक पाल, पतवार
साथ दे उसका, करे उसे पार|

11 सितंबर 2008

रेत का महल



रेत का महल
क्यों? बनाते है हम
अनजान सागर की लहरों से
क्या? जानते नही उसकी शक्ति
जिसका कोई आधार ही नही
इमारतें उसकी चढाते है क्यों?
नन्हे बच्चों सी गलती
बार-बार करते ही है क्यों?
हँसी-हँसी की खेल मे
लहरों पर घर क्यों टिकाते है?
रेत के महल को
क्यों? हम किनारों पर सजाते है
ढह जायेगा, बह जायेगा सब
क्या? सहने की शक्ति हम रखते है
गर पास नही वो हिम्मत, वो साहस
फिर क्यों? उम्मीदों पर जिंदगी गुजारते है
सपने बुनने का अधिकार है सभी को
लेकिन लहरों से भिड़ने को तैयार होना होगा
जब बनाया रेत का महल सागर किनारे
तो लहरों से 'ना' डरना होगा
फिर सजाओ जी भर अपना महल
नन्ही उम्मंगों से, अपनी हिम्मतों से|
रेत के महल का आधार रेत मे बनेगा
जिसके शिला मे हो तूफानों का असर मिला
उस महल को खतरों से फिर डर क्या .....

08 सितंबर 2008

मै एक साधारण मनुष्य


मै एक साधारण मनुष्य
एक लोभी
एक प्यासा
मृगतृष्णा मे भटकने वाला
लेश मात्र एक काया
पाप से लिप्त ये जीवन
मोह पाश मे बंधा हुया
इर्ष्या की अग्नी जिसे जलाती है
धन की आस जिसे लुभाती है
हर छड़ सपनों मे खोया
सब कुछ जीवन मे एक माया
प्रभु की भक्ति मे
मन नही रमता
सुख की तृप्ति के लिए
'कर' जोड़ करे प्रार्थना
सिर्फ़ एक स्वार्थ अपना
बुनते रहे पाप का जाल
हर प्राणी से जितने की होड़
मै एक साधारण मनुष्य
एक 'निज कर्मी'
एक 'अधर्मी'

28 अगस्त 2008

रिश्ते




किसी से दर्द का रिश्ता होता है,
किसी से प्यार का रिश्ता होता है,
फर्क क्या है, दोनों में
क्या है, अन्तर
'रिश्ता' तो होता है|
किसी को याद करते है, जखम जैसे
किसी को याद करते है, दवा जैसे
फर्क है, कुछ तो बोलो
बतलाओ क्या है, अन्तर
याद तो करते है दोनों को ही|
कोई दिल में रहता है, दुश्मन की तरह
कोई दिल में रहता है, दोस्त की तरह
कुछ भी फरक नही इसमे|
ना ही है कोई अन्तर|
दिल में तो रहते है दोनों ही|
याद करते है, सोचते है सबको
एक साँस से.... दूसरी साँस तक
और फिर अन्तिम साँस तक|
तानाबाना बुनते रहते है, रिश्तों के
सभी एक दुसरे के पूरक
इसके बिना वो नही, उसके बिना ये नहीं
सब एक ही माला के मोती
कोई सुंदर, कोई बदसूरत
कोई कठोर, कोई नरम
कोई कड़वा, कोई मधुर
फर्क क्या है? इसमे कुछ
क्या है? कुछ अन्तर
'रिश्ता' तो सबसे है
यादें तो सबसे जुड़ी है,
कुछ भयानक, कुछ सुंदर
इसके बिना वो नहीं, उसके बिना ये नहीं|



http://merekavimitra.blogspot.com/2008/08/rishte-par-kavitayen-kavya-pallavan.html#menka

21 अगस्त 2008

कृष्णा के जाने कितने नाम



नटखट, गोपाल
कृष्णा या मुरलीधर
तुम हो कौन?
यशोदा के नंदन,
या हो कोई माखन चोर|

खूब किया लीला,
तंग भई यशोदा मईया|
गोपियों को सताया,
राधा को नचाया|

गिरधर, कान्हा
लल्ला या किशन
तुम हो कौन?
ब्रिज के तुम बासी,
या हो किसी मीरा के मोहन|

मुख पर अपने माखन लपेटे
जाने किस-किस के मटके तोडे|
बाल सुलभ मुस्कान से,
मोहे कितनों के मन|

श्याम, घनशयाम
केशव या बिहारी
तुम हो कौन?
सुदामा के तुम परम मित्र,
या हो गोवर्धन धारी|

नाम तुम्हारे जाने कितने?
जाने कितने रूप बदले?
चाहे तुम गोपाल,
चाहे तुम नंदलाल,
हमारे तो बस तुम एक प्रभु|
हमारे तो बस तुम एक भगवान|

13 अगस्त 2008

सखी






एय सखी


याद आती हो तुम आज भी,


एय सखी


भूली नही तुम्हे मै, आज भी


जरा इतना तो कहो ...


एय सखी


क्या आज भी तुम हो वही?


क्या आज भी तुम बदली नही?


एय सखी


क्या आज भी किसी बात पर


तुम हसती हो बेबाक सी ?


एय सखी


क्या आज भी पसंद है


तुम्हे वो फिल्म, वो गीत और वो खटाई?


एय सखी


क्या आज भी बातें करती हो अक्सर


तुम हमदोनों के यारी, दोस्ती की?


एय सखी


क्या आज भी याद है, सब वो पल


तुम्हे, जब हम घंटों गप्पे लगाती थी?


एय सखी


क्या आज भी इंतजार करती हो


तुम, घटा, बारिश और दिन छुट्टी की?


एय सखी


एक बात और थी तुमसे कहनी


और एक तुमसे सुननी


एय सखी


क्या आज भी मुझे याद करती हो


तुम, वैसे ही जैसे करती थी तब भी?


और एक हलकी सी मुस्कान तैर जाती है


तुम्हारे होठों पर अब भी ......

06 अगस्त 2008

क्यों आठ पहर की चिंता तुझको?


क्यों आठ पहर की चिंता तुझको?
क्यों रे मन तू ना समझे?
पल की कुछ ख़बर नही,
हर दम सोचे कल की|

क्यों आठ पहर की चिंता तुझको?
खूब करे विनय निवेदन, मांगे मन भर मन्नते
जीवित प्राणी की कोई पूछ नही,
पत्थरों को खूब पूजे|

क्यों आठ पहर की चिंता तुझको?
देखे खुली आंखों से सपने,
रात-रात नींद आती नही,
जाग-जाग चिंतित मन जागे|

क्यों आठ पहर की चिंता तुझको?
धन-दौलत की चाह मे, उनत्ति की सीढियां चढ़े
मित्र ना बंधू, पास कोई भी नहीं
एकाकी जीवन काटे|

क्यों आठ पहर की चिंता तुझको?
क्यों रे मन तू ना समझे?

15 जुलाई 2008

अगर ऐसा भी होता.....तो....कैसा होता.....


अगर ऐसा भी होता तो ...
कैसा होता...

बादल की डालियों पर
हवा के पालने पर ...
झूल पाते हम...तो
कैसा होता....
सूरज की किरणों को थाम
पहुँच पाते आकाश तक
छू लेते बस जरा सा...तो
कैसा होता....

अगर ऐसा भी होता तो ...
कैसा होता ....

इन्द्रधनुष के सातों रंग
उनसे भर कर अपनी कलम
बना पाते कोई चित्रपट ....तो
कैसा होता....
टिमटिमाते तारों से
लेकर उनकी रौशनी
जगमगा पाते राह अपनी ...तो
कैसा होता......

अगर ऐसा भी होता ...तो
कैसा होता.....

चँद्रमा की प्रतिबिम्ब से
भर कर अपनी अंजुली
जल उठते सारे दीये ....तो
कैसा होता.....
भोर की लालिमा संग
पंछियों के गुंजन, हर छन
बजाते मृदंग और सितार ...तो
कैसा होता......

ख्वाव तो कई है, आंखों मे
अगर सच बन जाते सभी .... तो
कैसा होता.....
अगर ऐसा भी होता ...तो
कैसा होता ......

07 जुलाई 2008

सागर ....जीवन का


यूँ तो दिल करता है,
चुन लाऊं, कुछ ऐसी सीपी
जिसके सिने मे हो मोती|
पर, सागर की लहरों को देख कर
कभी कदम बढ़ते है,
कभी कदम, पीछे हट जाते है
दिल कभी उन लहरों को देख कर,
उसकी सफ़ेद फेनिल मे डूब जाता है|
कभी तरंगो की उचाईयां,
पलकों के बंद करने पर भी,
ख़ुद मे मुझे समां ले जाती है|
कैसे लाऊं? वो सीपी ....
जिसके सिने मे हो मोती|
डर अगर लगता है, सागर से
तो कैसे करे, प्यार जीवन से ?
सागर की लहरों के संग
लहराना होगा मुझे,
खोल कर, अपने दोनों हाँथ|
डूब जाना होगा, समुन्दर की गहराई मे
उस अंधेरे को चिर कर,
जाना होगा रौशनी की तरफ़|
उस सागर की गर्भ मे उतर कर,
वापस आना होगा, तरंगो के संग
बंद अपनी मुठ्ठी मे, वो सीपी ...
जिसके सिने मे हो मोती|

24 जून 2008

मेरी माँ


मेरी माँ
तुम्हे कभी मै, भूलती नही माँ
जब याद करती हूँ तुम्हे,
जान जाती हो तुम कैसे?
उदास हूँ मै, माँ..
जाती हो कहीं से,
मेरी ही खाबों-ख्यालों मे
और कहती हो..तेरे साथ मै हूँ ना|
जब कभी ये सोचती हूँ, मै
बैठी होगी तुम, उसी कोने मे
करती.. मेरा इन्तजार
आँखें मेरी, बरबस ही भर जाती है
बतलाओ... तब मै क्या करूँ माँ?
जब देखती हूँ,
इन आंखों से तुम्हारी छवि,
तो मुस्कान खिल उठती है चुपके से,
हौसला तुम्हारा देख कर
मन को चैन मिलता है ..स्वर्ग सा|
आज भी रखती हो तुम, मेरा ख्याल
माँगा करती हो, भगवान् से
सब कुछ हमारे लिए...
अपनी झोली फैला|
निस्वार्थ प्यार की तुम, मिसाल
तुम मेरी माँ|
हर जनम, जनम लूँ
तेरी ममता की छाव मे,
माँगा करूँ सदा, मै ...माँ

19 जून 2008

दिलों की मजिल


मंजिल है...दिल तक पहुँचने की
इस राह मे,
ना जाने कितनी
हसरतें जागती है|
बिन पूछे मुझसे
मुझी को सताती हैं|
न कभी देखा,
ना कभी जाना जिसे,
ना ही महसूस किया कभी,
कहाँ से आकर जाने ?
दिल मे मेरे,
सुबह शाम मुझे जगाती है|
इस राह मे,
सुंदर सपनों की दुनिया है|
बादलों का छत,
और फूलों की जमीन है|
कभी इस पर भी,
काँटों का साथ मिलता है|
दिल रोता है... तब
जब, सपना कोई टूटता है
लेकिन मायूसी...ना
कभी भी इसकी हमसफ़र नही|
हिम्मत रहे बाकी
दिलों की मजिल अब दूर नही|

05 जून 2008

एक याद

मेरी पहली कविता :

http://merekavimitra।blogspot.com/2008/06/blog-post_05.html

23 मई 2008

कारे बदरा



देखो, वो फिर आ गए कारे बदरा
आ कर छा गए, फिर से बदरा
कभी मुझे, काले-काले हो कर डराते हैं
कभी मेरे छत पर, बिजली खूब चमकाते हैं
आंखें दिखाते है, मुझे
लड़ते हैं, झगड़ते हैं, ऊँची आवाज मे
डरती घबराती मैं बेचारी,
कारे बदरा के आगे बेहाल
मेरी क्या औकात, कह दूँ....
जा जा, यहाँ से लौटा जा
बूंदों की बौछार से, मुझे न भीगा
कभी हवा के संग मचलता है,
फिर धरती के और करीब आ कर,
मुझे छू जाता है
कारे बदरा को देखूं मैं,
अपनी छतरी की आड़ से
बूंदों की टिप-टिप गूंजती कानों मे
लो फिर से वो घुमड़ रहे हैं,
फिर मुझे, आंखें दिखा रहे है
फिर भी सुहाना लगे देखना इन्हें
इनका लौट-लौट कर आना
देखो, वो फिर आ गए कारे बदरा
आ कर छा गए, फिर से बदरा



09 मई 2008

पहाड़


एक पहाड़,
एक चट्टान,
एक विरानगी,
क्या-क्या कहते है उसे|
अनगिनत नामों से उसे पुकारें|
वो जो रास्ते मे खड़ा है,
पत्थरों का ढ़ेर बना है|
सिने मे उसके,
दफन हैं, कई जख्म जैसे|
कभी पड़े खून के छीटें,
कभी चलीं तलवारें,
समय की मार उसे मिली,
मिली उसे, निगाहों की उदासी|
जेठ की धूप मे,
जरजर हुआ, उसका हर कोना
टूटता गया, हर हिस्सा
बह गया, भादों की पानी मे
सावन आए तो आये,
बाहर ना, उस पर आये
नन्हें पौधों को, तरसता रहे
रोम-रोम उसका,
धरती उसकी बंजर कहलाये|
सब सहते-सहते
बन गया वो 'एक पहाड़'|
जो हर मुश्किल सह जाए,
सीखें तो इससे कुछ सीखें,
अडिग, अचल, अभय है
नतमस्तक नही किसी के आगे|
लड़े एक वीर जैसे,
हर विपदा, हर बाधा से|
इतिहास से लेकर वर्तमान तक,
लड़ता आया वह, प्रतिकूलता से
चुप रह कर,
'पाषाण' शब्द यथार्थ करे
बंधे है, कदम उसके अपनी जड़ों से
छवि उसकी, हिम्मत जगाये
वीरता की गाथा सुनायें|

30 अप्रैल 2008

शाम की दुल्हन


धीरे-धीरे शाम का आगमन हुआ|
चुपके-चुपके बचपन उसका अस्त हुआ|

शाम की दुल्हन आई है,
मिलने अपने साजन से|
होठों पर उंगली रख,
पैरों मे बाँध पायल,
हौले-हौले हवा ने उसका घूँघट उठाया,
छम-छम से, पायल ने शोर मचाया|

रूप उसने आज खूब सवारां,
घूँघट की आड़ से, करती इशारा
मिलन बेला बीत जाए ना,
सोच यही, मन उसका घबराया|
मधम-मधम शाम चली बनने निशा,
हलचल है, पल-पल घबराए उसका जिया|

माथे पर उसकी मोतियाँ खिली,
बांहों मे आकर पिया के, अपनी
कुछ देर को थम गया हर आलम,
देख-देख यह सुंदर नजारा|
सन्नाटे मे सब कुछ शांत हुआ,
शाम की दुल्हन बन गई रात का सपना|

आँखे खुली तो उसने देखा,
उषा किरणें कर रहीं हैं, उसे छेड़ा
चौक कर उठ गई वह नींद से,
घूँघट मे अपना मुख छुपाया|
मलते-मलते आंखें अपनी, बिखरे केशों को सवारा
आँचल से ढक माथे को, कर गई कल आने का वादा|

25 अप्रैल 2008

अम्बर


नीली छतरी,
मौसम भीनी -भीनी,
पागल ..........पानी
रस बरसाये,
अम्बर
ओढे धरती, चुनर धानी-धानी|
भींगे धरती,
महक सोंधी-सोंधी,
आवारा.....बादल
रूप बदले,
अम्बर
झुक-झुक आए बारी-बारी|
शीतल वयारी,
सिहरन ठण्डी-ठण्डी,
चतुर.......बिजली
हठ करे,
अम्बर
कड़के धडके, करे मनमानी|
बिजली-मेघ-पानी,
सबने अपनी ठानी,
दम भरे.....अपना
डरती-घबराती....धरती रानी,
अम्बर
अंक समाये, बन दुल्हन नवेली|

15 अप्रैल 2008

अच्छा होता है ....






कभी
किसी मोड़ पर मुड़ जाना ही
अच्छा होता है,
शायद, कदमों से तुम्हारे
आकर मिल जाएँ कदम किसी और के|

कभी किसी पल का रुक जाना ही
अच्छा होता है,
शायद, इंतजार मे तुम्हारे
कोई खींच रहा हो उस पल को पास अपने|

कभी किसी सपने का टूट जाना ही
अच्छा होता है,
शायद, सपनों की दुनिया से बाहर
दिखने लग जाएँ तुम्हें कोई सच्ची तस्वीर|

कभी किसी का हाथ थाम लेना ही
अच्छा होता है,
शायद उन्ही हाथों मे
लिखी गई हो तुम्हारी भी तक़दीर|

11 अप्रैल 2008

हमने तो देखा है...


जुगनुओं की बात करते हो,
हाथों मे, पकड़ कर उन्हें
मुठ्ठी अपनी, रौशन करते हो
हमने तो देखा है, चाँद को
उस झील मे गोते लगाते...

तितलियों के पीछे भागते हो,
परों को उनकी, बिखरा कर
दामन मे अपने, रंग भरते हो
हमने तो देखा है, परिंदों को
आसमान बीच अपना घर बनाते....

चंद कांच के टुकडों से,
धुन्ढ़ते हो बहाना, खुश होने का
और, अपना घर सजाते हो
हमने तो देखा है, इन्द्रधनुष को
उजली दोपहरी को सिंदूरी बनाते.....

कुछ कागज़ की फूल पत्तियों से,
सोचते हो, सुवासित हुआ सब
और, साँसों को अपनी महकाते हो
हमने तो देखा है, सूखे साखों को
बारिश की बूंदों मे झूमते.....

10 अप्रैल 2008

बरफ की फर्श पर


बरफ की फर्श पर......
कभी आवाजें होती हैं....
रुई के फाहों से, उड़ते ये
कभी इनसे भी झंकारें आती है....
किसी ने जैसे पैजनियाँ झंकायी
घुन्घुरुवों को, सफ़ेद फर्श पर बिखेरा
उसकी छम-से की आवाज़ मे
नाचती ये बरफ की नन्ही परियाँ|

बरफ की फर्श पर...
नींद भी चुपके से सोती है
करवटें लेती है, हौले से
आसमानी ये, नन्ही परियाँ
तब चमकती हैं, जुगनुओं सी
शरमाती है, उंगलियों की स्पर्श से
बरफ की नाजुक कलियाँ

सफ़ेद चादरों पर सोते है
नींद मे जागते हुए कुछ सपने ....
सूरज के किरणों के, बिखरते ही
चमकते हैं, ये सपने लेकर अंगडाई
बैठते हैं, बरफ की फर्श पर...
निकलती है , धूप की डोली मे,
तब सपनों की दुनियाँ|

04 अप्रैल 2008

आधुनिक जिंदगी


कौन सा रूप है तेरा?
ना जाने कितने हाँथ है तेरे?
और कितना चेहरा?
रावण कभी हुआ करता था,
दसमुख, दसानन
आज तू है वो 'रावण'
'आधुनिक जिंदगी' नाम तेरा
पल-पल बदले अपना चेहरा
रूप तेरा हर पल नया-नया
बस आता तुझे सबको लुभाना
कभी अपनी चमक से,
कभी अपनी दमक से,
तू, एक जिवंत मृग-त्रिसना
तू ,एक भुलौना
इस संसार मे, सब भूले
भूले अपना सम्मान तक, तुझमे
झूठे तेरे चेहरे मे|
भूले सब, अपना असली चेहरा|
तू क्यों न दिखाती है? रूप अपना
चल फेक दे ये मुखौटा|
जो बना देता है, तुझे डरावना
देखे सब तुझे, पावन रूप तेरा
की तू भी कभी सच करती थी हुआ,
जैसे असत्य पर सत्य की विजय हुयी,
तू भी हटा, इस माया जाल को
हटा दे, इस मकडी जाल को
ख़ुद मे जो सब को फाँस रहा|
हर छन तुझे निगल रहा|
उठ, तू भी अपना बिगुल बजा
काट दे, अपने अनगिनत हाँथ
उतार दे, अपना ये चोला
आ! तू अपने रूप मे आ|
दिखा! तू नही मरीचिका|
तू नही, कोई भ्रम
दे! तू अपना परिचय
तू है 'जिंदगी'
तू है 'सच'
तू है 'पावन'|

01 अप्रैल 2008

इंतजार अभी बाकी है.....


कभी आहट आती है
कभी सरसराहट सी होती है
उस दिशा मे मुड़ जाती है
'नजर' जहाँ से आवाजें आती है
लेकिन समझे ना मन ये
इंतजार अभी बाकी है ......
हथेलियों को कानों पर रख कर
बंद करते हुए, पलकों को
ध्यान हटाते है, ' तुमसे' अपना
इस मन को एक ही भटक होती है
लेकिन कौन मन को समझाये
इन्तजार अभी बाकी है ......
समय बीते अपनी रफ़्तार मे
जैसे कोई सन्नाटा सा छा जाए
दिल की धड़कनों मे घुलती जाए
बस घड़ी की टिक-टिक
लेकिन समझाने से मन ना समझे
इंतजार अभी बाकी है .....
बेचैनी बढ़ती जाए
लम्बी साँसों मे वक्त गुजरे
एक ही धुन मन मे रमता जाए
एक ही आहट की आह लेते रहते है
लेकिन समझ पाए मन ये
इंतजार अभी बाकी है.....





28 मार्च 2008

क्या चाहिए इंसान को?


क्या चाहिए इंसान को?
जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान|
क्या चाहिए इंसान को?
दो वक्त की रोटी
या चाहिए
बर्गर, पिज्जा और सेंड-विच|
क्या चाहिए इंसान को?
तन ढकने को कपड़े
या चाहिए
पीटर-इंग्लेंड और पेंटा-लून|
क्या चाहिए इंसान को?
सर पर एक छत
या चाहिए
सोने की सलाखों से बना महल|
क्या चाहिए इंसान को?
सोना-चांदी,
हीरा-मोती,
पाँच सितारा होटल,
रूपैये-पैसों का ढ़ेर,
या अपने सपनों का महल?
क्या चाहिए इंसान को?
खुली हवा,
चैन की साँस,
मन की शांति,
और दाल-रोटी|
क्या चाहिए इंसान को?
मृग-त्रिसना,
छलावा,
झूठा अहम् ,
या चाहिए
वास्तविकता,
आत्म्स्वाभिमान,
और सच्चाई|
ये सच
जो बदल न सके कोई
आए है जगत मे
जाना भी है यहाँ से
ना कुछ ले कर आए हैं
ना कुछ लेकर जायेंगे
फिर इसे क्यों झूठ्लाये हैं?
पूछ अपने मन से ....
क्या चाहिए इंसान को .....
पाँच तत्व से बना यह शरीर
होगा एक दिन विलीन
फिर क्यों ना समझे?
क्या चाहिए इंसान को...?

27 मार्च 2008

बदरा


घटायें छाये घनघोर
चले हैं किस ओर?
कहते है, कारे-कारे बदरा
बरसेंगे आज, तुम्हारे अंगना
पंछी उड़-उड़ कर
लौट रहे है, अपने घर
ताके नयन राह तुम्हारी
बेचैनी सी लागे, घड़ी-घड़ी
चपला जब चमके बादल मे
तन थर्राये, मन ये कापे
सुन्दूरी नही, आज गोधुली
रह रह कर, चमके बिजुरी
दिन का उजाला हुआ कम
चढ़ने लगा, अब श्याम रंग
गिरने लगी बूंदे टिप-टिप
आँगन को भिगोती रिमझिम
मन मे कभी, उठे हजार लहरें
कभी कदमों की आहट सुनें
डरा जाए, बदरा ये कारे-कारे
लौट के जाओ तुम, उससे पहले|



24 मार्च 2008

प्रार्थना


हे प्रभु! तुम्हारे चरणों मे मेरी यही प्रार्थना हो .....
हर दुःख से बड़ी मेरी हिम्मत हो
हर डर से बड़ा मेरा साहस
हर इक्च्छा से बड़ा मेरा धैर्य
हर दर्द से बड़ी मेरी शक्ति
हर खुशी से बड़ी मेरी प्रार्थना
हर गर्व से बड़ी मेरी नम्रता
हर दिन से बड़ा मेरा एक पल हो
हर मौत से बड़ी मेरी जिंदगी
हर रात से बड़ी मेरी सुबह हो
हर अंधेरे से बड़ी मेरी ज्योति
हर राह से बड़े मेरे कदम हो
हर बाधा से बड़ी मेरी मंजिल|

22 मार्च 2008

होली को मन तरसे


बचपन के आँगन में,
खेली थी, जो 'होली' हमने
आज उस होली को मन तरसे|
चारो तरफ़ उमंग
रंगों का उफान हर दिशा में बरसे
लाल-पीले हर रंग के रंग
मुख हमारे हरे-नीले
हाथों मे मुट्ठी भर-भर गुलाल
गालों पर सभी रंगों का कमाल
घर-घर जा कर मचाते धमाल
आज उस धमाल को मन तरसे
आज उस होली को मन तरसे
पकवान जो, होली में विशेष बनते
पुआ-पुरी और कचौरी
दही-भल्ले संग खूब ललचाती जिलेबी
पिचकारियाँ भर-भर देते एक-दुसरे पर मार
करते सब मिल रंगों की बौछार
उस बौछार मे, गुलाब जामुन पर चढ़ते रंग हजार
फागुन की फुहार में हम मस्त-मौला हो कर झुमते
आज उस फुहार को मन तरसे
आज उस होली को मन तरसे|

http://merekavimitra.blogspot.com/2008/03/33-2-1.html

20 मार्च 2008

आओ मिलकर खेलें होली


आओ, मिलकर खेलें होली
उमंग, तरंग के संग
राग, रंग और प्यार की होली
पिचकारियों से निकलती,
सर-सर-सर, बहार की रंगोली
आओ, मिलकर खेलें होली|

फागुन से सराबोर होकर,
रंगों से तैयार होकर
घूमें आज, टोली-टोली
कभी नीली, कभी पीली
भर कर अपने रंगों की झोली
आओ, मिलकर खेलें होली|

मन झूमें, तन झूमें
मिलाकर, अपनी ताल से ताल
'फगुआ' मे करें सब धमाल
उडाते चलें, हर रंग के गुलाल
हाथों मे लेकर झाल और ढोलकी
आओ, मिलकर खेलें होली|

आये, बरस मे एक ही बार
भुला दे सब, चाहे हो गम हजार
गले मिलें सब, खुशी का है अवसर
मिलकर करें सब, 'फागुन' का स्वागत
लो आ गयी, रंगों की डोली
आओ, मिलकर खेलें होली|

18 मार्च 2008

देश-परदेश



एक सफर मे उससे मुलाकात हुयी
वो था, एक टैक्सी ड्राईवर
हम थे राही
बातें हुयी, कुछ विषयों पर
आदान-प्रदान हुआ कुछ विचारों का
हम थे परदेश मे, देश की बातें होने लगी
उसकी आंखें कहीं गुम हो गयी
क्या जाने क्या? कुछ खोजने लगी
पूछा हमने जाते हो देश को?
उसने मायूसी से कहा .....
याद तो बहुत आती है मिट्टी की
लेकिन जाए तो किस से मिलने जाए?
देश से निकले बीस बरस बीत गए
अब कोई नही अपना, वहाँ देश मे
क्या करें हम? अब हालात हैं ऐसे
हम ना रहे यहाँ के, ना रहे वहाँ के
यहाँ वो अपनापन नहीं मिलता
यहाँ अपनों की बातें नहीं होती
परदेश मे रहना, मज़बूरी है हमारी
आख़िर रोटी भी तो है जरूरी ...
अब पैसे तो बहुत कमा लिए हमनें
इस दौड़ मे, देश छुट गया पीछे
यहाँ परदेश मे, हम रह गए अकेले
आज देश की बहुत याद आती है
पर यही सोचते है....
हम जाए तो कहाँ जाए?
बातें उसकी गुजती हैं मन मे
मायूसी उसकी, आंखों मे तैरती है
तड़प उसकी, बार-बार हमें झकोरती है
क्यों है यहाँ हम? सब छोड़ कर परदेश मे
वहाँ क्या नही मिलता? अपने देश मे ......






14 मार्च 2008

बचपन


छप-छप पानी
छप-छप पानी
पानी मे करते, हम नादानी
छप-छप पानी
छप-छप पानी
पानी मे बहती, कागज़ की कश्ती
रिमझिम बारिश
रिमझिम बारिश
बारिश मे करते, हम शैतानी
रिमझिम बारिश
रिमझिम बारिश
बारिश मे भींगते, लेकर छतरी
टीम-टीम तारे
टीम-टीम तारे
तारों के संग, सोते जागते
टीम-टीम तारे
टीम-टीम तारे
तारों के संग होती सौ-सौ बातें
चन्दा मामा
चन्दा मामा
कहते, वहाँ रहती है नानी की परियां
चन्दा मामा
चन्दा मामा
माँ कहती, खालो उनके नाम का एक निवाला
लुकछिप खेलें
लुकछिप खेलें
आंखें बंद कर, सबको देखे
लुकछिप खेलें
लुकछिप खेलें
गिनती गिन-गिन, हम सब भागे
वो पलछिन
वो पलछिन
गुजरे हुए पल, गुजर गए वो दिन
वो पलछिन
वो पलछिन
बिसार दी सब बातें, लेकिन भुला ना पाए बचपन

12 मार्च 2008

आत्मा की सुने


आँसुओ की,
तेरी दुनिया मे कोई कीमत नहीं|
तेरी दुनिया मे रोने की भी,
शिकायत होती है|
गम छुपाना,
बड़ा मुश्किल है, काम
आंखों मे जब नमी भर जाती हैं,
तेरी दुनिया मे लोग कहते हैं,
हँसी मे, आंखें हैं छलक गई|
दुखों के साथ रहना,
अपनी-अपनी मुश्किलों के साथ जीना,
घुटन मे दम अपना घोटते रहना,
तेरी दुनिया मे वाहवाही के लायक,
यह बात है, समझी जाती|
रोते है जो,
दुखों पर उसके लोग हँसते हैं|
लोग वही जो इन्ही दुखों को छुपा कर जीते हैं
तेरी दुनिया मे बाहरी चीख पुकार सुनी और सुनायी जाती है|
भले आत्मा रह जाये, धिक्कारती|
आत्मा की सुने,
या सुने तेरी दुनिया के लोगों की?
अपनी दुखों के साथ हँसते हुए जिए,
या आँसुओ को छुपा कर, खुश होने का भ्रम रखे?
भ्रम यह की, हम है सबसे सुखी
भ्रम यह की, हमें कोई भी दुःख नहीं
शायद तेरी दुनिया के लोगों को पता नहीं,
आत्मा जो है, कहती
सच्चाई वही है, होती
सुख और दुःख को मिलाकर ही
जिंदगी सच के पैमाने पर खरी है उत्तरती|

11 मार्च 2008

फागुन


मस्त हवा जब चली,
बादल घिर-घिर आए, कोयल बोली
डाली-डाली फिर से झूमी,
आम के बौर से, डालियाँ झुकी-झुकी
उड़ते पखेरू, पंख फैलाये
गगन को चूमते, अपना आसमान बनाए
जगत का रंग भया सिंदूरी,
धरती ने दुल्हनवाली चादर ओढ़ी,
छुपते छुपाते कुछ शरमाते,
जैसे कोई गोपी, घूँघट खोले
बिल्कुल सुहावना ये नव-रूप,
मधुरिमा इसकी, प्रकृति की हर लय मे
जैसे दूर बजतें हो ढोल और मृदंग,
संग-संग उड़ते, गुलाल रंग-रंग के
सब रंग ये, धरती पर आ बिखरे
सुगन्धित हुआ अबकि, फ़ागुन
देख-देख जिसे, नयन लेते सुख|

दम भर को ....


थोड़ी देर जो तुम ठहरो,
हम भी तुम्हारे साथ चलें|
बेरुखी से तुम ये ना कहना,
दम भर को फुर्सत नहीं|
तन्हाई मे जो तुम जीते हो,
महफ़िल मे भी, तन्हा रहते हो
जो थाम लो, हाथ मेरा
तो हम भी बन जाए तुम्हारे साथी|
तीखे नज़रों से अपने ये ना कहना,
दम भर को हमें फुर्सत नहीं|
कई बार तुम्हें देखा है, अकेले-अकेले
कई बार तुम्हें देखा है, परछाई से बतियाते
सच है, तन्हा रह गए हो तुम भी
जिन्गदी का सफर अभी बहुत है, बाकी
देखो फिर से मुझे तुम ना झूठलाना,
की दम भर को फुर्सत नहीं|

05 मार्च 2008

आज की ताज़ा ख़बर


चाय की चुस्की लेते हुए,
आज का अखबार पढने बैठे|
नजर गई, आज की ताज़ा ख़बर पर
पत्नी पीड़ित पति ने कोर्ट की ली शरण|
बेटे ने बाप को, पैसों के लिए धमकाया|
सोचा ....भाई ये क्या जमाना आ गया?

नजर आगे, और खबरों पर गई
राजनीति मे नेताओं की राजनीति से
मन खिन्न हुआ, चाय फीकी लगी
हमने एक प्याला और बनाया|
पढ़ते हैं, कहीं स्कूल बस खड्डे मे जा गिरी
कहीं रेल-पटरियों को आतंकवादियों ने उडाया|
सरकार ने घायलों को मुवाबजे का ऐलान किया|
तभी एक दूसरी ख़बर ने मुझे चौकाया
मृत सैनिकों के परिवार जनों ने, रोष है जताया
कारण ..वर्षों से ना मिली घोषित सरकारी सहायता
उफ़! ....ये क्या जमाना आ गया?

चुस्कियों संग नजर खबरें देखती गयी|
हर ख़बर से मन विचलित होता गया|
कहीं चोरी, कहीं मर्डर, कहीं डाका
कहीं बंदूकें, कहीं अपहरण, कहीं गोलियाँ|
क्या-क्या चल रहा है मेरे देश मे?
कभी जो हुआ करती थी सोने की चिडियाँ,
किसान कर रहे हैं, वहाँ आत्महत्या|
सरकारी कुर्सियों पर बैठे नेताओं की,
बढ़ रही है, तन्खावाह|
वहाँ गरीबी से तंग, बाप ने बेटी को बेच डाला|
ओह!...ये क्या जमाना आ गया?

कैसी-कैसी ये खबरें, हर ख़बर
चाय का मसाला बन कर है रह जाती|
चाय की चुस्की संग प्रत्येक नागरिक इसे पढता है,
चाय की प्याली के खत्म होते ही,
ये खबरें भी बंद हो जाती हैं|
अखबार को बंद कर, उलट कर रख दिया जाता है|
'आज की ताज़ा खबरें' अखबार मे कहीं दफन हो जाती हैं|
अरे, सरकार की तरह मेरी चाय भी ठंठी हो गई
सरकार, जो सिर्फ़ कुछ वादों पर बनती और टूटती है
सब वादें 'गरमा-गरम ख़बर' बन जाती है|
मैंने भी एक और प्याले का जी बनाया|
और वही मैंने भी सोचा, जो हर कोई है सोचता|
गंभीर है समस्या....क्या होगा इस ज़माने का?

04 मार्च 2008

चल-चल रे बादल चल


चल-चल रे बादल चल
हवा के संग उड़ कर,
किस देश तू है पँहुचा?
पूछते है सब तुझसे यँहा?
बता क्या है? तेरा परिचय
किस जमीन के टुकड़े पर तू बरसेगा?

चल-चल रे बादल चल
सोच मे तू, उलझा क्यों रहेगा?
इस टुकड़े पर कब तक झुका रहेगा?
इस जमीन की सीमा को भी लाँघ जा,
बता क्या है? तेरी मनसा
किसे खुश, किसे नाराज करेगा?

चल-चल रे बादल चल
हवा के संग उड़ जा कही और
ठूंठ अपना, कंही दूसरा ठिकाना
जिस जमीन का कोई हिस्सा ना हो,
जंहा कोई न पूछे तुझसे तेरा परिचय,
बुलाये तुझे प्यार से, वँहा जाकर बरस जा

चल-चल रे बादल चल
जिस नगरी हो तेरा इन्तजार,
आँखे घड़ी-घड़ी देखे तेरा रास्ता
जंहा तेरा ना हो, कोई बन्धन
बांधे ना कोई तुझे, सीमाओं संग
उस माटी पर रस बरसा

चल-चल रे बादल चल

27 फ़रवरी 2008

जीवन-धारा


नदी के धारों, बीच
हिडोलें लेता, अकेला नांव
बहता रहता, धारा संग
चलता रहता, किनारों संग
मंजिल उसकी, माझी के हाथ
उन लहरों का क्या?
लौट जाए जो किनारों तक आ-आ|
उसका कौन किनारा?
पतवार काटे, नदी के धार
नैया को मिले, पानी बीच राह
हवा से जूझती, उसकी रफ़्तार
सफर मे पतवार ही है, एक मात्र हथियार
पतवार का सहारा, बस माझी के हाथ
उन लहरों का क्या ?
जो नदी बीच उठ-उठ समाये|
उसका कौन सहारा?
नैया ना छोड़े लहरों से लड़ना,
लहरें छोड़े नदी का साथ
किनारों को काट नदी आगे बढ़ती रहती|

'जीवन-धारा', नदी की धार जैसे
सफर मे माझी ये 'तन',
धुन्धता रहता अपना किनारा|
जब उठे तूफ़ान के आसार,
जीवन की थर-थर कापे 'पतवार',
साँसों की गति, थम-थम जाए|
इस माझी तन का क्या?
इसकी कौन सी मंजिल?
भटकता रहता जीवन सफर मे,
मृगतृष्णा जैसा, यह माया संसार|
जूझता रहता, अपनी ही परछाइयों से|
क्यों जाए भूल माझी?
माटी की यह काया,
माटी मे मिल जाना है|
क्यों फिर जाए तूफ़ान से डर?
लाखों लहरें उठाये,
मन के बीच उथल-पुथल,
हार नही मानना,
यही माझी की मंजिल|
पत्थर को काट ज्यों नदिया आगे बढे
किसी बिजली की गति लिए,
मान तू भी, यही तेरा 'लक्छ्य'
आगे बढ़ाना ही, तेरी जीवन-धारा|


20 फ़रवरी 2008

गरीब माँ का बेटा


कभी वह, माँ का आँचल खिचता
कभी बार-बार उससे, मिन्नतें करता
अम्मा ले दो, मुझे वो खिलौना
दिला दो मुझे वो तोता-मैना|
माँ उसकी, कभी उसे मनाती
कभी उसके मुख को, चूमती-पुचकारती|
कभी वह माँ का ध्यान हटाता,
कभी उसे इशारों में बताता|
माँ मेरी, मुझे भी दे दो चना वो मसाले वाला
मेरे लिए ले लो, खाने को कुछ भी थोड़ा सा|
माँ कभी उसे, ना कह कर समझाती
कभी अपने बेटे का, ध्यान भट्काती
कभी वह, चुपचाप सब निहारता
कभी माँ की गोद मे, सर छुपा कर रोता|
माँ देखो, वो जा रहा है गुब्बारे वाला
अब की उसे ना रोका तो, वो ना आएगा दुबारा|
माँ कभी उसे चूमने लगती,
कभी बेचैन हो कर, उसकी सिसकियाँ सुनती
गरीब माँ का बेटा है तो क्या ?
माँ उसकी तंग हाल है तो क्या हुआ ?
उसका भी दिल मचलता है
जी उसका भी सब देखकर ललचाता है|
माँ उसकी सोचती कैसे बेटे का दिल बहलाऊ?
कैसे ला कर वो सब दूँ, जो इसने चाहा?
कभी मुट्ठी मे बंद चंद सिक्को को देखती
कभी रोते हुए बेटे को देख, ख़ुद पर रोती
कर दे खर्च इसे अगर, अपने गरीब बेटे पर
फिर कैसे जलेगा चूल्हा, आज इस गरीब के घर
ममता उसकी तिल-तिल मरती है,
सिसकियाँ भी दम घोटने लगती हैं|
कभी बेटे को, अपने आँचल मे छुपाती है
कभी प्यार से, उसके सर को सहलाती है
माँ की आंखों के लहू बेटे से कहते है
बेटा... तू मत मांग कुछ भी इस लाचार माँ से
क्योंकि .....
तेरी माँ गरीब है
तू एक गरीब माँ का बेटा है|