15 फ़रवरी 2008

दुनिया बनाने वाले


एक गीत सुना था बचपन मे ,
"दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन मे समायी
तुने काहें को दुनिया बनायी"
बोल कुछ अजीब से लगते थे |
सोचती थी ,ये भी कोई गीत है ?
मेरी दुनिया तो ,कितनी निराली है
जिसमे माँ-बाबूजी हैं
भईया ,दीदी हैं
दोस्त हैं ,और मेरी गुड़िया है
गुड़िया भी मुझसे बातें करती थी |
इसी दुनिया मे मैं खुश रहती थी |
बचपन छोड़ जब आगे बढ़े ,
तब भी उस गीत के बोल कानों मे पड़े ,
संग-संग मैं भी कुछ गुनगुनाने लगी |
जिंदगी की हर मोड़ पर ,
गीत के बोल यथार्थ लगने लगे |
इस भरी दुनिया में
इंसान भी बातें करता था |
मतलब के सब दोस्त साथी बने ,
जरुरत के लिए हर बन्धन बना |
आज भी उस गीत के बोल हम गुनगुनाते है ,
हर बोल के साथ सोचते है ......
कितने सही है ये शब्द ,
कितनी सच्चाई है ,इसके अर्थ में
"दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन मे समायी
तुने काहें को दुनिया बनायी"

कल फिर सुबह होगी ...



कल फिर सुबह होगी ...
और तुम ,
चल दोगे अपना हाथ छुड़ा कर
मेरे हाथों से .....................
कल फिर सुबह होगी ...
मैं फिर ,
रोकूंगी तुम्हें ,तुम न मानोगे
चल दोगे
मुझे
रुला कर
आंखों को मेरी , नम कर .............

14 फ़रवरी 2008

मेरी खिड़की से शहर

सुबह-सुबह जब खिड़की खुली
देखती हूँ ,सुबह तो कब से हो चुकी
रास्तों पर भाग रहीं हैं मोटरें ,कारें
बजा-बजा कर हार्न ,
लोगों को करते हुये दर किनार |
बच्चे खड़े हैं ,कतारों मे
करते हुए स्कूल बस का इन्तजार |
कुछ लोग भी दौड़ रहे फूट्पाथ पर
तेज-तेज कदमों से ,आगे बढ़ते हुये
जल्दबाजी मे पार्किंग से निकालते हुए कार
साहब लोग हैं , ऑफिस जाने को तैयार |
बिल्डिंग का रुका हुआ काम भी चल पड़ा
कभी लिफ्ट ,कभी क्रेन आगे बढ़ रहा |
बसें चल रही हैं ,अपनी स्टोपेग की ओर
ट्रेनें दौड़ रहीं हैं ,अपनी मंजिल की तरफ़
सभी यात्री टक-टकी लगाये बैठे हैं ,
कोई खुश ,कोई उदास ,कोई शांत है
शहर के साथ सबकी जिंदगी भाग रही
भागते हुए लोग ,दौड़ता हुआ समय
बेहाल सभी जन ,
सब कुछ मुट्ठी मे बंद करने को व्याकुल मन
साँस लेने की भी जंहा ,पल भर फुरसत नहीं
यह सुबह कैसी ?
शहर की सुबह यह .......लेकिन सुबह ऐसी !

13 फ़रवरी 2008

वाह रे लेपटोप


लेपटोप क्या बना !
दुनिया को नया रूप मिला |
जब से लेपटोप स्टेटस सिम्बोल बना
घरवालों ने एक नहीं , दो- चार खरीदा |
एक चुन्नी का ,एक मुन्नी का
एक श्रीमती का , एक श्रीमान का |
अब सबकी ख़ास जरुरत है लेपटोप
बिना इसके कुछ भी न होता फटाफट |
श्रीमान इसे ऑफिस मे चलाते हैं ,
श्रीमती इसे घर मे चलाती हैं |
अपने बच्चो का दिल बहलाती हैं ,
इंटरनेट क्या जुड़ा इससे ,
यही टीवी बना ,यही फ़ोन बना
श्रीमान के जाते ही , श्रीमती ऑनलाइन हो जाती हैं
अपनी सखियों-सहेलियों से जी भर बतियाती हैं |
श्रीमान जब भी घर आते हैं ,
लेपटोप के साथ कुछ ई-मेल भी लाते हैं |
श्रीमती जब श्रीमान से रूठती हैं ,
तब भी फ्री टीवी .कॉम पर सास-बहु सीरियल देख डालती हैं |
बच्चे कार्टून के लिए ,
इसे तबला बना देते हैं |
ऑनलाइन कुछ दोस्त बार-बार पिंग करते होते हैं |
जब ऑफिस के कामो से श्रीमान जी थक जाते हैं ,
श्रीमती जी तब भी उन्हें याद ना आती है ,
जी बहलाने को याहू मेस्संजर के दोस्तों से चेत्तिंग कर लेते हैं |
श्रीमती जी किसी और लेपटोप पर फ़िल्म डाउन लोड करती होती हैं |
वाह रे वाह !
सुबह इसी से और शाम इसी से होती है ,
सारी दुनिया इसमे उलझी रहती है ,
ऊपर वाले की बड़ी दुनिया गूगल.कॉम मे सिमट गई ,
जब ख़ुद थक जाते है ,
घरवाले , सो जाते हैं
लेकिन
लेपटोप को तब भी आराम न होता है ,
उस वक्त भी वो स्टैंड बाय मोड मे रहता है |

12 फ़रवरी 2008

खिचड़ी पक रही है .......


शहर कि एक दोपहरी ऐसी ................

महिलाओं की गोष्ठी में ,
जाने क्या खिचड़ी पक रही थी |
खिड़की से अन्दर आती धूप ,
सर्दी मे ऐसा सुहाना रूप
व्यस्त हैं , सभी जन
कोई ऑफिस , कोई ट्रेन , तो कोई -मेल
लड़की के हाथ में गाड़ी कि चाबी ,
कान पर उसके मोबाइल लटक रही थी ,
सबसे जुदा , महिलाओं कि सम्मेलनी
कोई सास कि , तो कोई बहु की ओम्लेट बना रही थी |
लड़का अपने चार यार दोस्तों के साथ ,
सिगरेट के छ्लों में ,धुआं उड़ाते हाँथो में हाथ
बच्चा भरी दोपहरी में ,खेल रहा सड़क पर
होम-वर्क के लोड से निगाह चुरा कर ,
लेकिन ,महिलाओं कि किट्टी-पार्टी अभी भी जारी है |
कोई सुन रही है , तो कोई सुना रही है ....................
कोई स्वेटर कि सलाईन्या चला रही है ,
और ,कोई खिचड़ी पका रही है ..................