19 दिसंबर 2008

वो बच्चे


खेतों खलिहानों मे दौड़ते वो बच्चे
मिट्टी से सने पानी मे खेलते वो बच्चे
पसीने से तर है उनके बदन
बिन कपडों के नंगे है उनके बदन
भूख से बिलबिलाते वो बच्चे
धुप मे काले हो गए उनके चेहरे
भूख से कभी पीले पड़ गए वो चेहरे
माता पिता को कड़ी मेहनत करते देख रहे वो बच्चे
फिर कैसे उनसे रोटी मांगे वो बच्चे
खेल मे तल्लीन रहने का करते है बहाना
भगवान् से बस प्रार्थना करते है वो बच्चे
कब अच्छे दिन आयेंगे? जब पेट भर वो भी खा पायेंगे
किसान जो लाखों का पेट भरता है
जो हमें सक्षम सबल बनता है
कितनी विडम्बना है उसकी
भूख से बिलबिला रहे है उसीके बच्चे
दो जून की रोटी के लिए रो रहे है
उसे फटे चिथडों को पहनाना पड़ता है
पाठशाला का कभी मुंह नही देखे, वो बच्चे
हाय रे ! और उन्हें ही देश का भविष्य बनाना है
कैसे भविष्य बनायेंगे वो बच्चे ?
जो ख़ुद इतनी जर्जर अवस्था मे है वो बच्चे

17 दिसंबर 2008


एक छन आशा
एक छन निराशा
एक मन उगे
एक मन डूबे
आशा ...निराशा एक आये एक जाये

आशा ...निराशा
साथ जैसे शरीर और आत्मा
जैसे दिया बाती
या कोई प्यारी सहेली

मचाये हलचल
करे मन को व्याकुल
पल पल, हरपल

एक खुशी की लहर
एक दुःख की बदली
एक तड़प जगाये
एक जीवन जोत जलाए
आशा...निराशा एक आये एक जाये

आशा....निराशा
साथ जैसे नदी और धारा
जैसे धुप और छाँव
या किसी कड़वाहट मे छुपी मिठास

नैन भिगोये कभी
कभी राह सुझाए नयी
भूले भटके राही को
यही आशा..निराशा|
आशा...निराशा एक आये एक जाये|