11 अप्रैल 2008

हमने तो देखा है...


जुगनुओं की बात करते हो,
हाथों मे, पकड़ कर उन्हें
मुठ्ठी अपनी, रौशन करते हो
हमने तो देखा है, चाँद को
उस झील मे गोते लगाते...

तितलियों के पीछे भागते हो,
परों को उनकी, बिखरा कर
दामन मे अपने, रंग भरते हो
हमने तो देखा है, परिंदों को
आसमान बीच अपना घर बनाते....

चंद कांच के टुकडों से,
धुन्ढ़ते हो बहाना, खुश होने का
और, अपना घर सजाते हो
हमने तो देखा है, इन्द्रधनुष को
उजली दोपहरी को सिंदूरी बनाते.....

कुछ कागज़ की फूल पत्तियों से,
सोचते हो, सुवासित हुआ सब
और, साँसों को अपनी महकाते हो
हमने तो देखा है, सूखे साखों को
बारिश की बूंदों मे झूमते.....

10 अप्रैल 2008

बरफ की फर्श पर


बरफ की फर्श पर......
कभी आवाजें होती हैं....
रुई के फाहों से, उड़ते ये
कभी इनसे भी झंकारें आती है....
किसी ने जैसे पैजनियाँ झंकायी
घुन्घुरुवों को, सफ़ेद फर्श पर बिखेरा
उसकी छम-से की आवाज़ मे
नाचती ये बरफ की नन्ही परियाँ|

बरफ की फर्श पर...
नींद भी चुपके से सोती है
करवटें लेती है, हौले से
आसमानी ये, नन्ही परियाँ
तब चमकती हैं, जुगनुओं सी
शरमाती है, उंगलियों की स्पर्श से
बरफ की नाजुक कलियाँ

सफ़ेद चादरों पर सोते है
नींद मे जागते हुए कुछ सपने ....
सूरज के किरणों के, बिखरते ही
चमकते हैं, ये सपने लेकर अंगडाई
बैठते हैं, बरफ की फर्श पर...
निकलती है , धूप की डोली मे,
तब सपनों की दुनियाँ|