06 अक्तूबर 2008

मकान


वो एक मकान ही तो था
कुछ ईंट, पत्थर
और रेंत का ढेर
उसके साथ जीते- जीते
अच्छी लगने लगी,उसकी दीवारें
उसका रंग-रूप
जचने लगे छोटे-छोटे झरोखे
उस पर लगे, वो फूलों वाले पर्दें
आस-पास उसके कुछ भी नही था
बस थे तो उसके ही जैसे
कुछ चंद मकान पत्थरों के
एक ही रूप रंग, कद काठी
फिर भी इस मकान की
अलग ही पहचान थी
सबसे हटके मेरा 'घर' था
जिसके छोटे-छोटे कमरों मे
मेरा दिल धड़कता था
उसमे रहते रहते
उसकी आदत सी पड़ गई थी
दो छोटे कमरें, एक रसोई
दो-चार, काठ के कुर्सी-टेबल
सारे के सारे मेरे धन
आँगन मे दो-चार फूलों की क्यारी
और एक-एक आम, अमरुद, कटहल के पेड़
बहुत प्यार से पालता था वह मुझे
छत उसका ना जाने कितने
आंधी, पानी को झेल गया
याद मे कितनी यादें हैं
घर से जुड़ी कितनी बातें हैं
उसके रौशनदान मे
चिडियों का घरौंदा
कुछ भी तो नही भूले
आज भी वो रास्ते वो गलियाँ
सब तो वही है
गुजरना जब भी हुआ उस राह से
एक नजर उस मकान को देखते हैं
उसकी दीवारें अब भी पहचानती है मुझे
बुलाती है हाथों को फैलाए
उस पर पड़ी दरारें
बूढी हो गई है उसकी नजर
और अब वो आम, अमरुद, कटहल
के पेड़ भी तो नही रहे
उस मकान मे अब अनजाने लोग रहते है
गूंजती है पिछली सारी बातें
आंखों मे तैर जाती है
खेल सारे ....पडाव सारें
कौन सा लगाव है, क्या जाने
कभी-कभी सपनों मे भी वह मकान आता है
क्या ईट पत्थरों के भी दिल होते हैं?
लेकिन कुछ तो है जो महसूस होता है
आह......
एक गहरी साँस मे यादों को बिसार दे
नही तो इस सिने मे बड़ा दर्द होता है|

छः ऋतू



कुछ रंगों के लिए मन तरस रहा है
किसी छन की याद मे मन भींग रहा है
जब मौसम करवट बदलता है
प्रकृति अपनी सुदरता की छटा बिखेरती है
जब बादल छाते है आसमान पर
हल्का सा अँधेरा होता है हर तरफ़
मिटटी की सोंधी खुशबू आती है
भीतर तक बस यही महक होती है
जब ठण्ड की कम्बल ओढे
गुलाबी शीत ऋतू आ जाती है
थोडी-थोडी धुंध मे, घास की तह पर
ओस की नन्ही बूंदें कापती है
जब कड़कती ठण्ड को हटा कर
फागुन की मस्त बहार आ जाती है
गिरते पत्तों के संग, सुखी शाखाओं पर
धीरे-धीरे बसंत की छटा छा जाती है
जब छम से कब, पता ना चले जैसे
जेठ की दोपहरी मे, गर्मी डराती है
लू की थपेडों मे, जिंदगी झुलस जाती है
पसीने की बूंद, हर पल अमृत धारा को तरसती है
और फिर वो रंग वापस आता है
जब कोयल गाती है, मोर नाचता है
धरती पर पड़ी प्यासी दरारों को
बरखा की धारा भर देती है
सब रंग कितना सुंदर
सबकी याद कितनी पावन
छः ऋतुओं वाला मेरा देश
पावन, पवित्र मेरा देश

दावत---वाह कंहूँ या हाय कहूँ


दावतों के नाम सुने थे
पकवानों के खूब हुए थे चर्चे
मुँह मे हमारे पानी भर आया
जलेबी, हलवा नाचे आंखों के आगे
उस दिन भी मन खूब तरसा
जिस दिन हुए दावत के दर्शन
हम भी शामिल हुए महफ़िल मे
सज-धज कर, लिए हाथों मे तोहफे
दुल्हन देखि, देखी दावत की तैयारी
चले खूब पटाखे, नाचते-झूमते बाराती आए
धूम-धडाका, बच्चों का शोर
आँख खिचती जाए पकवानों की ओर
नजरों को बांधा, दिल को समझाया
कहा "अपनी बारी का इंतजार तो कर"
सब अपनी हांथों मे प्लेट भर-भर जाए
हम भी मन मसोस कर सोचे
मेजबानों से कोई आकर हमें भी कहे
अरे हुजुर! "आप भी शौक फरमाए"
ग्रह-नछत्र ख़राब थे हमारे
लजीज खाने की खुशबु मन को खिचे
आते-जाते प्लेटों को देख कर
दिल को अपने ठंडा करते
आख़िर वो शुभ मुहूर्त आ ही गया
जब हमारा भी नंबर लग ही गया
हाँथ मे खाली प्लेट लेकर दौड़ पड़े
वेज खाने की पंक्ति मे जा खड़े हुए
तभी कोई हमारे आगे आ उछला
किसी का जोरदार पैर, हमारे नाजुक कदमों पर आया
एक जोर की चींख निकली हमारी
और, हांथों से प्लेट नीचे जा गिरी
अब कुछ और ही नजारा था
पहले नंबर से हम आखरी पर जा पहुचे
अब दिल बहुत तिलमिलाया
हाँथ मल कर हमने सोचा
"चलो धीरे से खिसक जाए
घर जाकर दाल-रोटी खाए"
लेकिन तब भी किस्मत ने ना साथ दिया
निकलते हुए भी हम पकडे गए
मेजबान की नजरों मे जकडे गए
कहा मेजबान ने "कहाँ चलते बने?
अभी तो दावत शुरू हुयी है---
आप भी कुछ चखिए, कुछ मजा लीजिये"
अपने क्रोध को संभालते हुए, हमने
हँसता हुआ चेहरा दिखाया और कहा
"चलिए चलिए---आप तकलीफ ना उठाये,
हम महफ़िल मे अभी शामिल होते है"
बेमन से हमने अपना नंबर फिर लगाया
खाली प्लेट के संग, किस्मत फिर आजमाया
मन मे रहे यही सोचा
वाह वाह रे दावत
तू भी खूब रही
क्या-क्या सपने हमने सजाये
तू ने भी हमें खूब लुभाया
यँहा आकर जब हुए तेरे दर्शन
तब हमने ख़ुद को, "रणभूमि" पर पाया
समझ मे हमें अब तक ना आया
तुझे क्या कह कर पुकारूं
दावत ---तुझे, वाह कहूँ या हाय कहूँ?