27 फ़रवरी 2008

जीवन-धारा


नदी के धारों, बीच
हिडोलें लेता, अकेला नांव
बहता रहता, धारा संग
चलता रहता, किनारों संग
मंजिल उसकी, माझी के हाथ
उन लहरों का क्या?
लौट जाए जो किनारों तक आ-आ|
उसका कौन किनारा?
पतवार काटे, नदी के धार
नैया को मिले, पानी बीच राह
हवा से जूझती, उसकी रफ़्तार
सफर मे पतवार ही है, एक मात्र हथियार
पतवार का सहारा, बस माझी के हाथ
उन लहरों का क्या ?
जो नदी बीच उठ-उठ समाये|
उसका कौन सहारा?
नैया ना छोड़े लहरों से लड़ना,
लहरें छोड़े नदी का साथ
किनारों को काट नदी आगे बढ़ती रहती|

'जीवन-धारा', नदी की धार जैसे
सफर मे माझी ये 'तन',
धुन्धता रहता अपना किनारा|
जब उठे तूफ़ान के आसार,
जीवन की थर-थर कापे 'पतवार',
साँसों की गति, थम-थम जाए|
इस माझी तन का क्या?
इसकी कौन सी मंजिल?
भटकता रहता जीवन सफर मे,
मृगतृष्णा जैसा, यह माया संसार|
जूझता रहता, अपनी ही परछाइयों से|
क्यों जाए भूल माझी?
माटी की यह काया,
माटी मे मिल जाना है|
क्यों फिर जाए तूफ़ान से डर?
लाखों लहरें उठाये,
मन के बीच उथल-पुथल,
हार नही मानना,
यही माझी की मंजिल|
पत्थर को काट ज्यों नदिया आगे बढे
किसी बिजली की गति लिए,
मान तू भी, यही तेरा 'लक्छ्य'
आगे बढ़ाना ही, तेरी जीवन-धारा|