20 फ़रवरी 2008

गरीब माँ का बेटा


कभी वह, माँ का आँचल खिचता
कभी बार-बार उससे, मिन्नतें करता
अम्मा ले दो, मुझे वो खिलौना
दिला दो मुझे वो तोता-मैना|
माँ उसकी, कभी उसे मनाती
कभी उसके मुख को, चूमती-पुचकारती|
कभी वह माँ का ध्यान हटाता,
कभी उसे इशारों में बताता|
माँ मेरी, मुझे भी दे दो चना वो मसाले वाला
मेरे लिए ले लो, खाने को कुछ भी थोड़ा सा|
माँ कभी उसे, ना कह कर समझाती
कभी अपने बेटे का, ध्यान भट्काती
कभी वह, चुपचाप सब निहारता
कभी माँ की गोद मे, सर छुपा कर रोता|
माँ देखो, वो जा रहा है गुब्बारे वाला
अब की उसे ना रोका तो, वो ना आएगा दुबारा|
माँ कभी उसे चूमने लगती,
कभी बेचैन हो कर, उसकी सिसकियाँ सुनती
गरीब माँ का बेटा है तो क्या ?
माँ उसकी तंग हाल है तो क्या हुआ ?
उसका भी दिल मचलता है
जी उसका भी सब देखकर ललचाता है|
माँ उसकी सोचती कैसे बेटे का दिल बहलाऊ?
कैसे ला कर वो सब दूँ, जो इसने चाहा?
कभी मुट्ठी मे बंद चंद सिक्को को देखती
कभी रोते हुए बेटे को देख, ख़ुद पर रोती
कर दे खर्च इसे अगर, अपने गरीब बेटे पर
फिर कैसे जलेगा चूल्हा, आज इस गरीब के घर
ममता उसकी तिल-तिल मरती है,
सिसकियाँ भी दम घोटने लगती हैं|
कभी बेटे को, अपने आँचल मे छुपाती है
कभी प्यार से, उसके सर को सहलाती है
माँ की आंखों के लहू बेटे से कहते है
बेटा... तू मत मांग कुछ भी इस लाचार माँ से
क्योंकि .....
तेरी माँ गरीब है
तू एक गरीब माँ का बेटा है|



18 फ़रवरी 2008

रिक्शावाला का स्वाभिमान

एक दिन जब मन मे कुछ उथल -पुथल हो रही थी , तब जाने क्यों कोई भी विचार कलम से निकल कर सफ़ेद पन्नों पर कविता का रूप नही ले पा रहे थे | तब मैंने सोचा आज आपको अपने जीवन की एक सच्ची घटना ही क्यों न बता दूँ , लिख कर ही सही .......एक लेख के रूप मे , जो शायद किसी किसी को एक कहानी लग सकती है | लेकिन यह कहानी भी एक सच है , आज भी वह घटना मुझे याद है |

बात नवरात्रि की है ...... जब मैं अपनी बहनों और कुछ सहेलियों के साथ दुर्गा-पूजा मेला घूम रही थी हम लोगों के साथ एक छोटी बच्ची भी थी |घूमते-घूमते सूरज कब सिर पर चढ़ गया ,हम लोगों को पता ही न चला |हद तो तब हो गई जब बच्ची सोने लगी , अब उसे गोद मे उठा कर घूमना हमलोगों के बस की बात नही थी | हमने बिना सोचे समझे एक रिक्शावाला को बुला लिया और हमारे बीच यह तय हुआ की ,कोई एक उस बच्ची के साथ रिक्शा में बैठ कर घर चला जाए बाकी सदस्य मेले की मौज जारी रखेंगे |रिक्शा वाला चुप- चाप खड़े हमारी बहस सुन रहा था , देखने में वो उम्रदराज लग रहा था , सर पर धूप से बचने के लिए पगड़ी बांधे हुए , मोटा चाश्म्मा उसके धुंधली होती आंखों का सहारा बने हुए थे |मिला जुला कर वो एक सीधा-साधा अच्छा इंसान लग रहा था ,जो शायद बुरे समय के फेर मे पड़ गया था | ये तो हुयी रिक्शावाला की बात |इस बीच हमारी टोली किसी फैसले पर न पहुँच सकी और हमने सोचा इससे अच्छा है की इस रिक्शावाला को लौटा दिया जाए और हम सब थोड़ा और घूम कर एक साथ घर को जाएँ | रिक्शावाला को लौटा दिया गया , वो मायूस हो कर वापस मुड़ा लेकिन उसने एक भी शिकायत नहीं किया ,जैसे की आप लोगो ने मेरा वक्त बरबाद किया , जब नही जाना था तो क्यों बुलाया था वैगरा-वैगरा... जो आमतौर पर कोई भी रिक्शावाला कह जाता | तभी किसी को इस बात की याद आई की ,नवरात्रि के दिन किसी को खाली हाँथ वापस नही करना चाहिए | इसीलिए हमलोगों ने उसे बक्शीश देनी चाही लेकिन, उसने उस लेने से इनकार करते हुए जो बात कही ...वो आज भी मेरे दिल मे गूंजता रहता है उसी के शब्दों में ...."मैं ये नही ले सकता , जब मैंने आपका कोई काम ही नही किया तो ये क्यों लूँ , गरीब हूँ लेकिन मेहनत की ही कमाई खाता हूँ " | उसके शब्दों से हम सभी अवाक् रह गए |बिना कुछ पूछे हममे से एक उस के रिक्शे पर बैठ कर घर की ओर चल दिया , और हम सब भी घर की तरफ़ मुड़ चले रिक्शे के पीछे-पीछे | मैं रास्ते भर ये सोचती रही की कितनी बड़ी बात हमें आजएक रिक्शा वाला कह गया ?आज भी रिक्शावाला मुझे याद है ,उसकी सूरत भी मुझे याद है |इस बात को कई साल हो चुके है , लेकिन उसकी गरीबी और उसके स्वाभिमान ने हमें जो पाठ पढ़ाया मेरे लिए जिंदगी
भर का सबक हो गया |