31 जनवरी 2008

शहर


शाम होते ही इस शहर कि
रफ़्तार थम जाती है ,
जैसे साँसे रूक गयी
जैसे धड़कन मद्धम हो गयी ,
ठिठुरती ठंढ मे
भागते कदम, उठते हैं
एक के बाद एक ,
घर कि ओर मुड़ती सब रांहें
शहर के चौराहों पर
मुलाक़ात हो जाती है जब
अपनी ही परछाई से,
डर का अहसास तब कराते
ये लंबे-लंबे दरख्तों के साये,
सन्नाटे मे गुम हो जाती
अपनी ही आवाज़ है ,
कभी चौका जाती है
खुद कि धड़कन भी
अँधेरी इन राहों पर
नज़रे ढूंढे किसी हमकदम का साथ ,
शाम का ये मंजर
शहर का ये विरानापन
भागती ये भीड़,
मुड़ती जाने किन गलियों में
और गुम हो जाते, जाने किधर
भागते इधर- ऊधर लोग,
चारो तरफ कि भीड़ मे भी
अकेले खड़े ये कदम,
हर मोड़ पर खुद को छुपाते
मन को धड्हास बंधाते
चलते अकेले-अकेले ,
विरान पड़ी इन राहों पर ......