14 फ़रवरी 2008

मेरी खिड़की से शहर

सुबह-सुबह जब खिड़की खुली
देखती हूँ ,सुबह तो कब से हो चुकी
रास्तों पर भाग रहीं हैं मोटरें ,कारें
बजा-बजा कर हार्न ,
लोगों को करते हुये दर किनार |
बच्चे खड़े हैं ,कतारों मे
करते हुए स्कूल बस का इन्तजार |
कुछ लोग भी दौड़ रहे फूट्पाथ पर
तेज-तेज कदमों से ,आगे बढ़ते हुये
जल्दबाजी मे पार्किंग से निकालते हुए कार
साहब लोग हैं , ऑफिस जाने को तैयार |
बिल्डिंग का रुका हुआ काम भी चल पड़ा
कभी लिफ्ट ,कभी क्रेन आगे बढ़ रहा |
बसें चल रही हैं ,अपनी स्टोपेग की ओर
ट्रेनें दौड़ रहीं हैं ,अपनी मंजिल की तरफ़
सभी यात्री टक-टकी लगाये बैठे हैं ,
कोई खुश ,कोई उदास ,कोई शांत है
शहर के साथ सबकी जिंदगी भाग रही
भागते हुए लोग ,दौड़ता हुआ समय
बेहाल सभी जन ,
सब कुछ मुट्ठी मे बंद करने को व्याकुल मन
साँस लेने की भी जंहा ,पल भर फुरसत नहीं
यह सुबह कैसी ?
शहर की सुबह यह .......लेकिन सुबह ऐसी !

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