11 मार्च 2008
फागुन
मस्त हवा जब चली,
बादल घिर-घिर आए, कोयल बोली
डाली-डाली फिर से झूमी,
आम के बौर से, डालियाँ झुकी-झुकी
उड़ते पखेरू, पंख फैलाये
गगन को चूमते, अपना आसमान बनाए
जगत का रंग भया सिंदूरी,
धरती ने दुल्हनवाली चादर ओढ़ी,
छुपते छुपाते कुछ शरमाते,
जैसे कोई गोपी, घूँघट खोले
बिल्कुल सुहावना ये नव-रूप,
मधुरिमा इसकी, प्रकृति की हर लय मे
जैसे दूर बजतें हो ढोल और मृदंग,
संग-संग उड़ते, गुलाल रंग-रंग के
सब रंग ये, धरती पर आ बिखरे
सुगन्धित हुआ अबकि, फ़ागुन
देख-देख जिसे, नयन लेते सुख|
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1 टिप्पणी:
bahut sundar
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