06 अक्तूबर 2008

छः ऋतू



कुछ रंगों के लिए मन तरस रहा है
किसी छन की याद मे मन भींग रहा है
जब मौसम करवट बदलता है
प्रकृति अपनी सुदरता की छटा बिखेरती है
जब बादल छाते है आसमान पर
हल्का सा अँधेरा होता है हर तरफ़
मिटटी की सोंधी खुशबू आती है
भीतर तक बस यही महक होती है
जब ठण्ड की कम्बल ओढे
गुलाबी शीत ऋतू आ जाती है
थोडी-थोडी धुंध मे, घास की तह पर
ओस की नन्ही बूंदें कापती है
जब कड़कती ठण्ड को हटा कर
फागुन की मस्त बहार आ जाती है
गिरते पत्तों के संग, सुखी शाखाओं पर
धीरे-धीरे बसंत की छटा छा जाती है
जब छम से कब, पता ना चले जैसे
जेठ की दोपहरी मे, गर्मी डराती है
लू की थपेडों मे, जिंदगी झुलस जाती है
पसीने की बूंद, हर पल अमृत धारा को तरसती है
और फिर वो रंग वापस आता है
जब कोयल गाती है, मोर नाचता है
धरती पर पड़ी प्यासी दरारों को
बरखा की धारा भर देती है
सब रंग कितना सुंदर
सबकी याद कितनी पावन
छः ऋतुओं वाला मेरा देश
पावन, पवित्र मेरा देश

3 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

सब रंग कितना सुंदर
सबकी याद कितनी पावन
छः ऋतुओं वाला मेरा देश
पावन, पवित्र मेरा देश
Menaka ji
bahut hi badhiya achchi rachana . likhati rahiye. badhai

बेनामी ने कहा…

Desh se sambandit bahut hi achhi kavita hai....

बेनामी ने कहा…

desh ke har rutu ke rang mein saji bahut hi sundar kavita lagi.sach aur koi desh nahi itne rang ki chunnar odhe huye.bahut khubsurat.sadar mehek