11 अप्रैल 2008

हमने तो देखा है...


जुगनुओं की बात करते हो,
हाथों मे, पकड़ कर उन्हें
मुठ्ठी अपनी, रौशन करते हो
हमने तो देखा है, चाँद को
उस झील मे गोते लगाते...

तितलियों के पीछे भागते हो,
परों को उनकी, बिखरा कर
दामन मे अपने, रंग भरते हो
हमने तो देखा है, परिंदों को
आसमान बीच अपना घर बनाते....

चंद कांच के टुकडों से,
धुन्ढ़ते हो बहाना, खुश होने का
और, अपना घर सजाते हो
हमने तो देखा है, इन्द्रधनुष को
उजली दोपहरी को सिंदूरी बनाते.....

कुछ कागज़ की फूल पत्तियों से,
सोचते हो, सुवासित हुआ सब
और, साँसों को अपनी महकाते हो
हमने तो देखा है, सूखे साखों को
बारिश की बूंदों मे झूमते.....

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

तितलियों के पीछे भागते हो,
परों को उनकी, बिखरा कर
दामन मे अपने, रंग भरते हो
हमने तो देखा है, परिंदों को
आसमान बीच अपना घर बनाते
bahut khubsurat prakruti ka har rang bhara hai is kavita mein.

बेनामी ने कहा…

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अमिताभ ने कहा…

ati sundar !!

मेनका ने कहा…

aap sabhi ka bahut bahut dhanyabaad.