22 मार्च 2008

होली को मन तरसे


बचपन के आँगन में,
खेली थी, जो 'होली' हमने
आज उस होली को मन तरसे|
चारो तरफ़ उमंग
रंगों का उफान हर दिशा में बरसे
लाल-पीले हर रंग के रंग
मुख हमारे हरे-नीले
हाथों मे मुट्ठी भर-भर गुलाल
गालों पर सभी रंगों का कमाल
घर-घर जा कर मचाते धमाल
आज उस धमाल को मन तरसे
आज उस होली को मन तरसे
पकवान जो, होली में विशेष बनते
पुआ-पुरी और कचौरी
दही-भल्ले संग खूब ललचाती जिलेबी
पिचकारियाँ भर-भर देते एक-दुसरे पर मार
करते सब मिल रंगों की बौछार
उस बौछार मे, गुलाब जामुन पर चढ़ते रंग हजार
फागुन की फुहार में हम मस्त-मौला हो कर झुमते
आज उस फुहार को मन तरसे
आज उस होली को मन तरसे|

http://merekavimitra.blogspot.com/2008/03/33-2-1.html

3 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

सचमुच एसी होली को ही मन तरसता है ।

बेनामी ने कहा…

wah subhah subhah itna swadist rngbirangi kavita ka nahsta karwa diya,bachpan ki holi yaad aagayi,bahut man bhavan rachana.

सागर नाहर ने कहा…

मेनकाजी
आपने गाँव की होली याद दिला दी...। आज सुबह मैने भी दुखी होकर एक पोस्ट लिखी थी।
आज गाँव बहुत आद आया