वो एक मकान ही तो था
कुछ ईंट, पत्थर
और रेंत का ढेर
उसके साथ जीते- जीते
अच्छी लगने लगी,उसकी दीवारें
उसका रंग-रूप
जचने लगे छोटे-छोटे झरोखे
उस पर लगे, वो फूलों वाले पर्दें
आस-पास उसके कुछ भी नही था
बस थे तो उसके ही जैसे
कुछ चंद मकान पत्थरों के
एक ही रूप रंग, कद काठी
फिर भी इस मकान की
अलग ही पहचान थी
सबसे हटके मेरा 'घर' था
जिसके छोटे-छोटे कमरों मे
मेरा दिल धड़कता था
उसमे रहते रहते
उसकी आदत सी पड़ गई थी
दो छोटे कमरें, एक रसोई
दो-चार, काठ के कुर्सी-टेबल
सारे के सारे मेरे धन
आँगन मे दो-चार फूलों की क्यारी
और एक-एक आम, अमरुद, कटहल के पेड़
बहुत प्यार से पालता था वह मुझे
छत उसका ना जाने कितने
आंधी, पानी को झेल गया
याद मे कितनी यादें हैं
घर से जुड़ी कितनी बातें हैं
उसके रौशनदान मे
चिडियों का घरौंदा
कुछ भी तो नही भूले
आज भी वो रास्ते वो गलियाँ
सब तो वही है
गुजरना जब भी हुआ उस राह से
एक नजर उस मकान को देखते हैं
उसकी दीवारें अब भी पहचानती है मुझे
बुलाती है हाथों को फैलाए
उस पर पड़ी दरारें
बूढी हो गई है उसकी नजर
और अब वो आम, अमरुद, कटहल
के पेड़ भी तो नही रहे
उस मकान मे अब अनजाने लोग रहते है
गूंजती है पिछली सारी बातें
आंखों मे तैर जाती है
खेल सारे ....पडाव सारें
कौन सा लगाव है, क्या जाने
कभी-कभी सपनों मे भी वह मकान आता है
क्या ईट पत्थरों के भी दिल होते हैं?
लेकिन कुछ तो है जो महसूस होता है
आह......
एक गहरी साँस मे यादों को बिसार दे
नही तो इस सिने मे बड़ा दर्द होता है|
कुछ ईंट, पत्थर
और रेंत का ढेर
उसके साथ जीते- जीते
अच्छी लगने लगी,उसकी दीवारें
उसका रंग-रूप
जचने लगे छोटे-छोटे झरोखे
उस पर लगे, वो फूलों वाले पर्दें
आस-पास उसके कुछ भी नही था
बस थे तो उसके ही जैसे
कुछ चंद मकान पत्थरों के
एक ही रूप रंग, कद काठी
फिर भी इस मकान की
अलग ही पहचान थी
सबसे हटके मेरा 'घर' था
जिसके छोटे-छोटे कमरों मे
मेरा दिल धड़कता था
उसमे रहते रहते
उसकी आदत सी पड़ गई थी
दो छोटे कमरें, एक रसोई
दो-चार, काठ के कुर्सी-टेबल
सारे के सारे मेरे धन
आँगन मे दो-चार फूलों की क्यारी
और एक-एक आम, अमरुद, कटहल के पेड़
बहुत प्यार से पालता था वह मुझे
छत उसका ना जाने कितने
आंधी, पानी को झेल गया
याद मे कितनी यादें हैं
घर से जुड़ी कितनी बातें हैं
उसके रौशनदान मे
चिडियों का घरौंदा
कुछ भी तो नही भूले
आज भी वो रास्ते वो गलियाँ
सब तो वही है
गुजरना जब भी हुआ उस राह से
एक नजर उस मकान को देखते हैं
उसकी दीवारें अब भी पहचानती है मुझे
बुलाती है हाथों को फैलाए
उस पर पड़ी दरारें
बूढी हो गई है उसकी नजर
और अब वो आम, अमरुद, कटहल
के पेड़ भी तो नही रहे
उस मकान मे अब अनजाने लोग रहते है
गूंजती है पिछली सारी बातें
आंखों मे तैर जाती है
खेल सारे ....पडाव सारें
कौन सा लगाव है, क्या जाने
कभी-कभी सपनों मे भी वह मकान आता है
क्या ईट पत्थरों के भी दिल होते हैं?
लेकिन कुछ तो है जो महसूस होता है
आह......
एक गहरी साँस मे यादों को बिसार दे
नही तो इस सिने मे बड़ा दर्द होता है|
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना...घर के प्रति आसक्ति स्वाभाविक है क्यूँ की घर सिर्फ़ चार दीवारों और छत से नहीं बनता...
नीरज
Menaka ji,
Apke blog Surabhi par apkee Kalam,Makan,Nadiya Naiya tatha anya kavitaen padheen. Prakriti par Bahut sookshma najar hai apkee.Apne Apneen kavitaon men ek taraf prakriti ke dvara hamen diye gaye upharon ko vyakhyayit kiya hai to doosaree or Makan jaise vishaya ko uthaya hai.
Sabse badhkar apkee bhasha bahut saral evam pravahmayee hai.Meree hardik badhai.
Ap ko main apne blog par bhee amantrit kar raha hoon.
Hemant Kumar
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