08 सितंबर 2008

मै एक साधारण मनुष्य


मै एक साधारण मनुष्य
एक लोभी
एक प्यासा
मृगतृष्णा मे भटकने वाला
लेश मात्र एक काया
पाप से लिप्त ये जीवन
मोह पाश मे बंधा हुया
इर्ष्या की अग्नी जिसे जलाती है
धन की आस जिसे लुभाती है
हर छड़ सपनों मे खोया
सब कुछ जीवन मे एक माया
प्रभु की भक्ति मे
मन नही रमता
सुख की तृप्ति के लिए
'कर' जोड़ करे प्रार्थना
सिर्फ़ एक स्वार्थ अपना
बुनते रहे पाप का जाल
हर प्राणी से जितने की होड़
मै एक साधारण मनुष्य
एक 'निज कर्मी'
एक 'अधर्मी'

2 टिप्‍पणियां:

विक्रांत बेशर्मा ने कहा…

बहुत अच्छी रचना है आपकी....आज के मनुष्य की सच्ची तस्वीर !!!!!!!!!

राज भाटिय़ा ने कहा…

एक आईना दिखाया हे आप ने हम सब को, ओर इस आईने को देख कर हमे अपनी बुराईया दुर करनी चाहिये, धन्यवाद सुन्दर रचना के लिये