23 मई 2008

कारे बदरा



देखो, वो फिर आ गए कारे बदरा
आ कर छा गए, फिर से बदरा
कभी मुझे, काले-काले हो कर डराते हैं
कभी मेरे छत पर, बिजली खूब चमकाते हैं
आंखें दिखाते है, मुझे
लड़ते हैं, झगड़ते हैं, ऊँची आवाज मे
डरती घबराती मैं बेचारी,
कारे बदरा के आगे बेहाल
मेरी क्या औकात, कह दूँ....
जा जा, यहाँ से लौटा जा
बूंदों की बौछार से, मुझे न भीगा
कभी हवा के संग मचलता है,
फिर धरती के और करीब आ कर,
मुझे छू जाता है
कारे बदरा को देखूं मैं,
अपनी छतरी की आड़ से
बूंदों की टिप-टिप गूंजती कानों मे
लो फिर से वो घुमड़ रहे हैं,
फिर मुझे, आंखें दिखा रहे है
फिर भी सुहाना लगे देखना इन्हें
इनका लौट-लौट कर आना
देखो, वो फिर आ गए कारे बदरा
आ कर छा गए, फिर से बदरा



2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

kare badra ke har bhav barbas chalak rahe hai kavita mein,garjana mein pyari si daatfatkar aur pyar ki rimjhim barsaat bhi,unka aana bhibhaye,laut jane bhi intazaar karaye,bahut hi sundar ehsaas se bhare kavita hai menka ji,
sadar mehek.

बेनामी ने कहा…

Beautilful poem.

Is poem ki heading dkehkar hi ek song yaad aa gayi.....


Kale megha kale megha paani too barsaao,
Bijri ki talwar nahin bundo ke baan chalao
Megha chaaye barkha laaye.....

abhi ise hi sun rahi hun....