10 अप्रैल 2008

बरफ की फर्श पर


बरफ की फर्श पर......
कभी आवाजें होती हैं....
रुई के फाहों से, उड़ते ये
कभी इनसे भी झंकारें आती है....
किसी ने जैसे पैजनियाँ झंकायी
घुन्घुरुवों को, सफ़ेद फर्श पर बिखेरा
उसकी छम-से की आवाज़ मे
नाचती ये बरफ की नन्ही परियाँ|

बरफ की फर्श पर...
नींद भी चुपके से सोती है
करवटें लेती है, हौले से
आसमानी ये, नन्ही परियाँ
तब चमकती हैं, जुगनुओं सी
शरमाती है, उंगलियों की स्पर्श से
बरफ की नाजुक कलियाँ

सफ़ेद चादरों पर सोते है
नींद मे जागते हुए कुछ सपने ....
सूरज के किरणों के, बिखरते ही
चमकते हैं, ये सपने लेकर अंगडाई
बैठते हैं, बरफ की फर्श पर...
निकलती है , धूप की डोली मे,
तब सपनों की दुनियाँ|

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

wah bahut sundar thanda khubsurat shubra baraf ka ehsas aur nanhi pariyon ki panjaniya unki gunj,har lafz jaise geet ho,beautiful words.

अमिताभ ने कहा…

menka ji ,
very nice blog !!
barf ki farsh behad khoobsurat kriti hai

बेनामी ने कहा…

लाजवाब रचना...